अनुग्रह और निग्रह ये दोनों अधिकार गुरु तत्व को सहज प्राप्त है। गुरु यानि साकार ब्रह्म। और मै तो यहां तक कहूंगा कि गुरु के लिए कोई भी तुलना गुरु की अवहेलना ही होगी। क्योंकि गुरु अतुलनीय है। गुरु तत्व का मूल शिव ही है। समस्त विद्याओं के आद्य आचार्य स्वयं सांब शिव है। मैंने अंबा सहित शिव इसलिए लिखा क्योंकि शक्ति से युक्त होने पर ही शिव दक्षिण मूर्ति गुरु के रूप में परिलक्षित होते है। ज्ञान की जितनी भी प्रकट और अप्रकट धाराएं है वे सब शिव के मधुरोज्जवल श्री चरणों से निसृत हो लोक में अवतरित हुई। वे ही समय समय पर वेद, उपनिषद्, श्रुति, स्मृति, वेदांत, मीमांसा पौराणिक आख्यान षट दर्शन, योग, भक्ति, तंत्र के रूप में प्रकट होती रही है और लोक को दिशा और दशा दोनों के लिए हितकारी निर्देश करती रही है। कुछ अप्रकट और गोप्य साधन पाद भी रहे जो शिव से प्रकट हो गुरु मुख के माध्यम से अनवरत और अक्षुण्ण हो आगे परम्परा में चलते रहे। लेकिन वे इतने दिव्य और शक्तिशाली साधन पाद थे कि कहीं लिखने में नहीं आए ताकि उनका दुरपयोग ना हो सके। वे गुरुमुख ही रहे। और सदशिष्य को आत्म उन्नति में बहुत सहायक सिद्ध हुए और आज भी हो रहे है।
मेरा ये सब लिखने का तात्पर्य सिर्फ इतना था कि कैलाश और अंतर कैलाश की स्थिति में जब तक साधक साम्यता स्थापित नहीं कर लेता उसे कैलाश के यथार्थ स्वरूप को समझने में विकट अवरोध का सामना करना ही पड़ेगा। वर्षों से ना जाने कितने भक्त और जिज्ञासु कितना खर्च कर बहुत परिश्रम कर इतनी कष्ट प्रद यात्रा को सम्पन्न करते है। क्या वे वास्तव में जीवन के पूर्ण लक्ष को पा चुके। हो सकता है उनमें से कुछ श्रेष्ठ साधक भी रहे होंगे और उन्होंने जीवन के सुक्रत को पाया होगा। लेकिन कितने? उत्तर शायद बहुत कम ही होगा।
कितने कैलाश यात्री यात्रा के वापिसी में मैंने लड़ते झगड़ते देखे। क्रोध में, काम में, लोभ में विस्मृत होते देखे। कुछ तो इतने भ्रमित हो गए कि मनोज को शिव की संज्ञा दे डाली और सबसे हास्यास्पद बात ये कि साथ के लोग समर्थन करते है। ये कैसी विडम्बना। एक बार जो उस आंनद धाम की क्षणिक झांकी देख ले क्या फिर वह मोहाविष्ट हो सकता है। कैलाशी लिखने की जैसे होड़ सी मच गई। कैलाशी कितना पूज्य शब्द कितना पूज्य भाव। अंतर कैलाश को स्पर्श किए बिना कैसा कैलाशी। सहज मानवीय विकार से ग्रस्त जीव स्वयं को कैलाशी लिख गौरवान्वित हो रहा है। कैलाश की यात्रा करने वाले लाखों, करोड़ों में कोई एक दो ही होंगे सही अर्थों में कैलाशी। मेरे कुछ स्नेही बड़े ही आतुर भाव से अवधूत उमा नन्द का पता पूछने लगे और कुछ तो बोले उनसे पूछ कर बताइए कि शिव कैसे है। इतनी व्याकुलता क्या हृदय के तक से है क्या होने पर लोक विस्मृत की स्थिति नहीं बन जाएगी। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण। हम सिर्फ इतना करे कि कल्याण की भावना से खुद को परिपूर्ण कर ले सिर्फ और सिर्फ देने का भाव रखे लोकालय में स्नेह और करुणा का प्रसाद बांटें। तब शायद हम शिव के अर्थ को कुछ हद तक समझ सकेंगे।
आत्म साक्षात्कार के लिए बहुत ज्ञान की जरूरत नहीं। बल्कि मै तो ये कहूंगा कि कुछ भी ना जानना ही श्रेष्ठ क्योंकि सकल आध्यात्मिक ग्रंथ जिसकी महिमा को व्यक्त करते करते नेति नेति कह देते है उसे हमारी लघु बुद्धि कैसे और क्यो कर जान सकेगी। कुछ प्रश्न करते है कि ईश्वर लक्षित कैसे हो? कुछ चुनौती देते है कि वह रूप धारण कैसे कर सकता है।अरे वह कुछ भी कर सकता है। उसके लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं। प्रेम ही उसका वपु है। वह प्रेम रूपी देह का आश्रय लेकर प्रकट हो जाता है। उसके लिए कुछ भी लिखना सिर्फ वागविलास ही होगा। प्रयास कीजिए वह आपको जाने, ऐसे बनिए कि वह आपको पुकारे और इतने आकर्षिक हो जाइए कि वह आपसे योग करे। हमें कुछ नहीं करना। बस जो हो रहा है उसे देखते रहिए और छोड़ दीजिए समस्त क्रियाओं का संपादन करना क्योंकि क्रिया का संपादन स्वयं क्रिया शक्ति करती है हम आप नहीं। वहीं परा अंबा ना केवल अंतर यात्रा को संपूर्णता देती है बल्कि बाहर की यात्रा का सफलता पूर्वक संपादन भी वहीं करती है। जगत में समस्त व्यवहार का निर्वहन भी वही त्रिपुरा मां करती है साथ ही भगवती षोडशी ग्रंथि त्रय का छेदन भी करती है। वहीं मूलाधार में काली है तो वहीं भगवती वैष्णवी के रूप में हृदय कमल पर लीला विलास करती है तो वहीं ललितांबा स्वरूप धारण कर समस्त चेतना में खुद का प्रसार करती है और वही महा कैलाश पर शिव के रूप में प्रकट हो जाती है। शिव और शक्ति नित्य अभेद है उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता।
यात्रा की वापिसी का वर्णन मै करना नहीं चाहता हो सकता है दो दिन मानस सरोवर के किनारे बिताए उस पर कुछ लिखूं यदि शिव इक्षणा हुई तो।
जयति अवधूतेश्वर
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